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लौट आओ तुम... ! - 1

लौट आओ तुम... !

ज़किया ज़ुबैरी

(1)

“बीबी... ! कहाँ हैं आप... !”

''मैं नीचे हूं आपा... ड्राइंग रूम में।''

“क्या कर रही होगी...शायद... सफ़ाई कर रही होगी...! ” आपा ने सोचा।

“आपा मैं चाय पीकर आती हूं...। ”

बीबी जवाब देकर खो गई - इमेजिन टी.वी. का सीरियल देखने में। बिलकुल व्यस्त हो गई। ये सीरियल भी सिगरेट और शराब की तरह नशा बन कर जीवन का अटूट हिस्सा बन जाते हैं। बंदिनी, ज्योति, रक्तसंबंध, गुनाहों का देवता... बीबी वे तमाम सीरियल देखती और उसकी देखा देखी आपा ने भी सीरियल में दिलचस्पी लेना शुरु कर दिया क्योंकि बीबी अक्सर साबजी के पीछे सीढ़ियों पर गठरी बनी बैठी टुकुर-टुकुर टी. वी. देखा करती। अगर साबजी आवाज़ देते तो लहरा कर बड़े प्यार से पूछ्ती, “जी साबजी...... आपने बुलाया?”

“भई, ऐसा करो कि एक प्याली चाय पिलाओ।”

“जी साबजी।”

“हाँ मगर सुनो... फ़्लू वाली बनाना।”

“जी अच्छा साबजी।”

“बीबी सोचती फ़्लू तो हुआ नहीं... पर फ़्लू की चाय का भी शायद नशा हो गया है मेरे साबजी को... ! ”

और वह मटकती-चटखती, झूमती-लहराती रसोई में पहुंच जाती, गुनगुनाते-गुनगुनाते मसालों की हर बोतल को खोलती-बंद करती और खुट से अलमारी में रखती तो लचक सी जाती। रात हो गई थी। उसने अपने काले-काले बालों को भी कंघी मार कर कमर के नीचे तक बिखरा दिया था। जो बाल पीठ पर खुले पड़े थे, वे भी हर जुम्बिश के साथ ऐसे लहरा जाते जैसे घोड़ा ऊंघते-ऊंघते एक दम से एक टांग झटकता है तो मोटे काले काले बालों वाली पूंछ लहरा जाती है और फिर कुछ देर तक वह हिलती ही रहती है। वाटिका कोकोनट हेयर ऑयल की महक भी हर ओर फैल जाती।

अजवाइन की बोतल से एक छोटा चमच अजवाइन को निकाला, सूंघा और पतीली में डाल दिया। दालचीनी के बाद छोटी इलायची की शीशी खोलते ही पहले पूरी साबुत इलायची अपने मुंह में डाली मुंह को गोल गोल घुमा कर इलायची का सत्त चूसने लगी और फिर दो इलायचियां पतीली में डाल दीं। दो लोंग चुपके से सीधे पतीली ही में गिरा दिये। उसको लोंग बिल्कुल नहीं पसंद थी मुंह जो जला देती थी । ग्रीन टी का डिब्बा उठाने पीछे मुड़ी तो इंतज़ार करते करते भाईजान भी धीरे-धीरे चलते-चलते किचन में पहुंच कर उसके पीछे ही खड़े थे।

“अरे भई! आ नहीं रही हो बंदिनी शुरु हो गई है।”

साबजी ने अपनी बंदिनी से गहरी और मुलायम आवाज़ में पूछा

“आती हूँ बस दो मिनिट साबजी।”

“अच्छा आओ जल्दी... नहीं तो... मज़ा नहीं आएगा।”

“जी अच्छा साबजी।

साबजी चमकती-महकती ज़ुल्फ़ों के क़रीब झुककर जी भर कर महसूस भी ना कर पाए थे कि सीढ़ियों से आपा के उतरने की मुलायम-मुलायम नाज़ुक कदमों की आवाज़ आने लगी। आहट दोनों ने सुनी... साबजी धीरे धीरे टहलते हुए किचन से बाहर निकलते हुए ताकीद कर गए “जल्दी से आओ।”

“अरे...! ये तो आपा ख़ुद ही आ गईं...! मुझे बुलाया था उन्होंने। मैं तो भूल ही गई थी... बीबी ने साबजी के कानों में रस घोलते हुए घबरा कर ज़ोर से कहा।”

“कोई बात नहीं कभी-कभी ग़लती हो जाती है। साबजी ने तसल्ली दी।”

और उसको तसल्ली हो गई कि अब किसी की कोई परवाह नहीं...!

“अच्छा अब आराम से जल्दी से चाय बनाकर आ जाओ। शहद ज़रूर डालना... दो चम्मच, मनुका हनी - महंगा वाला... और तो कोई नहीं खाता न... मेरा असली हनी...? ”

“मालूम नहीं साबजी मैं तो नहीं खाती।”

“तो कैसे ख़त्म हो जाता है इतनी जल्दी? ”

“अब से मेरे फल, मेरे ड्राई-फ्रूट्स और मेरा हनी, मेरे कमरे में रख दिया करो।”

“जी साबजी।”

आपा बेचारी थक हारकर शाम सात बजे घर भागी-भागी आतीं और अपने छोटे से कमरे में पलंग पर सफ़ेद पलंगपोश के ऊपर ही सफ़ेद और गुलाबी कुशन पीठ के पीछे लगाकर घुटनों पर हल्के नीले और गुलाबी फूलों वाली रज़ाई डालकर टी. वी. पर नज़रें गाड़ कर बैठ जातीं... क्योंकि बीबी ने राय दी थी, ‘’आपा बंदिनी अवश्य देखेँ, अपने कमरे में नरम नरम बिस्तर में बैठ जाया करें तो मैं वहीं गरम-गरम चाय ला दिया करूंगी।’’

आज आपा फिर कहना मान गईं और बैठे बैठे इंतज़ार करते करते थक गई तो नीचे उतर आईं।

‘’अरे आपा आप नीचे क्यों आ गईं? चलिए बैठिए, मैं आपको चाय वहीं लाकर देती हूं...’’

“कहां बैठूं ? ” आपा ने धीरे से मुलायमियत से पूछा।

“कह तो रही हूं ऊपर चलिए आराम से बैठिए‌‌...चाय वहीं लाती हूँ।”

आपा ठिठकीं और फिर सम्भलते हुए मुड़ीं हल्के-हल्के क़दम बढ़ाते फिर ऊपर चली गई। जा तो ऊपर रही थीं पर ऐसा महसूस कर रही थीं जैसे नीचे को उतरती चली जा रही हों। अपने कमरे के बजाए साबजी के कमरे को ख़ाली देखा तो आज वहीं बैठ कर बड़ी स्क्रीन वाले टी.वी. पर सीरियल देखने का जी चाह गया।

“अरे आपा! आप यहाँ बैठी हैं, मैं आप को हर कमरे में ढूंढती फिर रही हूँ। लीजिए चाय पीजिए... फ़्लू वाली बनाई है।”

“क्यों...? मुझे तो फ़्लू नहीं है।”

“वह तो साबजी को भी नहीं है। मगर उन्होंने यही चाय बनाने को कहा था। आप भी यही पी लीजिए।”

“आपा को ये फ़्लू की चाय बहुत कड़वी लगती है पर जहां जीवन की बाक़ी कड़वाहटें पी रही हैं, उसी तरह फ़्लू की चाय को भी नाक बंद करके मिंनटों में गले से उतार सकती हैं। जीवन की कड़वाहट के लिए तो आंख और कान बंद रखने पड़ रहे हैं... और सांस रुकने लगती है।”

“आपा ने बोन-चाइना का मग धीरे से उठाकर साइड-टेबल पर रख लिया। आपा की नाज़ुक उंगलियां बोन-चाइना के नाज़ुक मग को पकड़ने में भी कांप गईं।”

“अगर आप यहां सो गईं तो सोते से उठने में आपको दुख होगा।”

‘’आपके कमरे का टी.वी. लगा दूं ?’’ प्यार से चुमकारते हुए बीबी ने पूछा।

मैं तो हर समय ही सोती रहती हूं। अगर जागूंगी तभी तो दुख होगा...! आपा ने सोचा और जल्दी से अपने गोरे-गोरे पैर चप्पल में डालने लगीं तो बीबी ने लपक कर चप्पल में उनका पैर पकड़ कर ठूंस दिया।

“अरे ये क्या करती हो कहते हुए चप्पल घसीटती हुइ आपा अपने कोने में घुस गईं।”

सोचा था अगर एक औरत घर में रख लूंगी तो मेरे बुढ़ापे में मेरे सूखते हुए शरीर में तेल डालेगी, मुरझाते हुए चेहरे, धुंधलाती हुई आंखों में ताज़गी की एक चुटकी भी डालेगी तो कुछ और दिन गाड़ी चलती रहेगी पर...

“दरवाज़ा बंद कर दूं?” बीबी ने पूछा।

“जैसा बेहतर समझो... ”, आपा ने कहा और बात पूरी होने से पहले ही उसने दरवाज़ा धड़ से बंद कर दिया...

आपा टी.वी. के बजाए बंद दरवाज़े के पट पर अपने मन में आते जाते चित्र देखती रहीं।

“आ गई तुम...? जहाँ जाती हो वहीं बैठ जाती हो।”

“मैं इंतज़ार करते करते थक गया... चलो बैठो क्या देखोगी? मैनें रिकॉर्ड कर लिया है... भूख तेज़ लगी है... वैसे ये बताओ खाना कब खिलाओगी? ”

“जब आप कहें।”

“नहीं तुम बताओ... !” आवाज़ में मनुहार था।

“बंदिनी देखने के बाद।” शरमाती आवाज़ ने जवाब दिया।

“अच्छा फिर बैठो... इधर ही आ जाओ। इतनी दूर क्यों बैठती हो?

बीबी दीवार के पीछे जाकर बडे विक्टोरियन सोफ़े में खो गई, मगर कभी चिक-चिक की और कभी आह-आह की आवाज़ें उभरती रहीं। शायद आज नायिका ने नायक की चोरी पकड़ ली थी। इसी लिये दोनो परेशान थे।

आपा कपड़े बदलकर सीढ़ी की ओर बढ़ी ही थीं कि बड़ी सी ट्रे में बीबी खाना भी ऊपर ही ले आई।

“मैं खाना खाने नीचे ही आना चाहती थी।” आपा ने अपनी ख़्वाहिश का इज़हार किया।

“साबजी को तो मैं खिला चुकी और उनको वही चादर जो आपने खास तौर से उनके लिये बनवाई है उढ़ा दी है। शायद अब तक तो सो भी गए होंगे।”

आपा फिर भी नीचे गई और दीवार के पीछे वह भी खो गई मगर चिक-चिक और आह-आह कैसे करें? ख़र्राटों की आवाज़ से तो टी.वी. भी हार मान गया था। आपा ने चलते चलते एक नज़र साबजी की ओर चुपके से देखा... जैसे वापस जवान हो रहे थे... काश! मेरे लिये भी कभी तो जाग लेते... वह अपने कमरे ही में वापस आ गई। खाने की ट्रे वहीं रखी हुई थी। आपा खाना ठंडा ही खाती थीं। वैद्य जी ने खाना दोबारा गरम करके खाने को मना किया थ। बीबी तो सवेरे से ही रात का खाना ट्रे में सजा कर रख लेती। केवल गरम पानी चांदी के गिलास में डालकर लाना होता। आपा को खाना तो कम पर खाने के आगे पीछे दवाइयां अधिक खानी पड़तीं।

“बीबी तुमने खाना खा लिया?” आपा ने घबराते हुए पूछा कि कहीं बीबी ये ना कह दे कि मैंने तो साबजी के साथ ही खा लिया है।

“मैंने अभी नहीं खाया। ज्योति देखकर खाउंगी। साबजी सो गये हैं ख़र्राटों का शोर बहुत है इस लिये उनके कमरे में टी. वी. देखने जा रही हूं।” बीबी ने इतराते हुए कहा।

“क्या मैं भी वहीं देख लूं?” आपा ने जैसे इजाज़त मांगी हो पर एकदम से घबरा के चुप हो गईं।

बीबी ने बड़ा दिल दिखाते हुए आपा को साबजी के कमरे में अपने साथ बैठकर टी वी देखने कि इजाज़त दे दी।

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